Thursday, September 22, 2011

अरे बुद्धू..Copyright ©


मैं बचपन मे खेला करता था
और दूध मलाई पेला करता था
नटखट इतना कि कान्हा शरमा जाए
मा पिताजी की गोद मे सोया करता था
और एक आवाज़ आती थी.....
अरे बुद्धू ....






छुटपन में स्कूल भी जाना पड़ा
बेंट, के दर्द को भी चबाना पड़ा
टीचर के ज़ुल्मों से लेकर
मार्कशीट के शून्य तक एक किरदार निभाना पड़ा
फिर भी उस आवाज़ ने पीछा ना छोड़ा
और वो डमरू फिर से बोला
अरे बुद्धू...


जवानी भी जल्दी आ गयी
साथ ज़िम्मेदारी भी आ गयी
गिर्ल्फ्रेंड के आँसुओं से लेके
उसके मोबाइल रीचार्ज करने की ज़िम्मेदारी
उसके हर पल "आइ लव यू बोलो " से भी थे कान भारी
जब उसने लात मारी
तो फिर एक आवाज़ आई...
अरे बुद्धू...


फिर काम काज मे लगे हम
बॉस की फ़रमाइशों से जन्मे सारे गम
एक नये गधे ने लिया जन्म
भाग दौड़ और ओफिस की राजनीति
में टूट गया दम
फिर आवाज़ आई
अरे बुद्धू....


बुद्धू ही हूँ तबसे
बुद्धि ना जाने कब आएगी
या ऐसे ही बुद्धू हो हो
गाड़ी जीवन की छूट जाएगी ?
कभी किसी का गधा, कभी किसी का कुकुर
ऐसे पन्च्तन्त्र सी गाथा मेरी लिखी जाएगी?
क्या हर दम मेरी बुद्धि घास चरती रह जाएगी?
कभी क्या बुद्धू से बुद्ध नही कहलाएगी?
क्या हरदम यह दो शब्द सुनता रहूँगा?
और बुद्धू बनता रहूँगा?


अरे बुद्धू...अरे बुद्धू...अरे बुद्धू
ही क्या मेरी पहचान रह जाएगी?

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